क्या आपको hs-CRP टेस्ट की ज़रूरत है? जानिए संकेत और लक्षण?

आपने कभी न कभी hs-CRP टेस्ट के बारे में जरूर सुना होगा। इस आर्टिकल में हम hs-CRP टेस्ट के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे कि आखिर ये है क्या और ये क्यों करवाया जाता है। साथ ही, किन रोगियों को hs-CRP टेस्ट की ज़रूरत होती है। hs-CRP के संकेत और लक्षण क्या है?

सीआरपी क्या है?

सी-रिएक्टिव प्रोटीन (CRP) शरीर में लिवर द्वारा बनाया जाने वाला एक प्रोटीन है। जब शरीर में कहीं भी सूजन होती है, तो सीआरपी का स्तर बढ़ जाता है। सीआरपी के इस लेवल को मापने के लिए hs-CRP (हाई-सेंसिटिविटी सी-रिएक्टिव प्रोटीन) टेस्ट करवाया जाता है।

सीआरपी बढ़ने के लक्षण

शरीर में सीआरपी का बढ़ना कोई विशिष्ट लक्षण नहीं दिखाता है। यह शरीर में चल रही सूजन का संकेत देता है। सूजन के आधार पर लक्षण भी अलग-अलग हो सकते हैं। हम आपको कुछ सामान्य लक्षणों के बारे में बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं।

  1.  बुखार या ठंड लगना
  2.  मतली और उल्टी
  3.  तेजी से सांस लेना
  4. असामान्य हृदय गति
  5. शरीर में दर्द
  6. थकान और कमजोरी
  7. सूजन या लालिमा

सीआरपी बढ़ने के कारण

  1. बैक्टीरियल, वायरल, या फंगल संक्रमण।
  2. ऑटोइम्यून विकार।
  3. हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा आदि।
  4. पुरानी चोट या सर्जरी।
  5. तनाव एवं चिंता।
  6. हार्मोनल कारण।
  7. शारीरिक गतिविधि
  8. धूम्रपान और अत्यधिक शराब का सेवन।

hs-CRP बढ़ने से क्या होता है?

सीआरपी (hs-CRP) का बढ़ा हुआ स्तर शरीर में पुरानी सूजन का संकेत देता है। hs-CRP का बढ़ा हुआ स्तर भविष्य में हार्ट अटैक, स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों के जोखिम को बताता है।

यह शरीर में आंतरिक सूजन का संकेत है, जो धमनियों को नुकसान पहुंचा सकती है और हृदय रोग को बढ़ाने में मदद करती है।

सीआरपी पॉजिटिव किस बीमारी में होता है? CRP बढ़ने से कौन सी बीमारी होती है?

सीआरपी का स्तर कई प्रकार की बीमारियों और स्थितियों में बढ़ सकता है, क्योंकि यह शरीर में सूजन का संकेतक है। कुछ सामान्य स्थितियां जिनमें सीआरपी पॉजिटिव हो सकता है, वे इस प्रकार हैं।

  1. बैक्टीरियल या वायरल संक्रमण जैसे निमोनिया, सेप्सिस, टाइफाइड।
  2. रुमेटीइड आर्थराइटिस, ल्यूपस, सूजन आंत्र रोग (IBD),
  3. एंकिलोसिंग स्पॉन्डिलाइटिस।
  4. पुराना सूजन संबंधी रोग।
  5. हृदय से जुड़े रोग।
  6. पुरानी चोट या सर्जरी।
  7. कुछ विशेष प्रकार के कैंसर।
  8. पैनक्रियाटाइटिस (अग्नाशय की सूजन)

CRP लेवल कितना होना चाहिए?

सीआरपी के सामान्य स्तर आमतौर पर बहुत कम होते हैं। सामान्यतः, एक सामान्य सीआरपी स्तर 0.9 मिलीग्राम/डेसीलीटर (mg/dL) से कम माना जाता है। हालांकि गर्भावस्था या वृद्धावस्था में सीआरपी का स्तर स्वाभाविक रूप से थोड़ा अधिक हो सकता है।

< 1.0 mg/L: हृदय रोग का कम जोखिम।
1.0 – 3.0 mg/L: हृदय रोग का औसत जोखिम।
> 3.0 mg/L: हृदय रोग का उच्च जोखिम।

CRP बढ़ने पर क्या नहीं खाना चाहिए?

यदि आपका सीआरपी स्तर बढ़ा हुआ है, तो आपको ऐसे खाद्य पदार्थों से बचना चाहिए जो सूजन को बढ़ावा देते हैं।

  1. सफेद ब्रेड, पेस्ट्री, सोडा, मीठे पेय पदार्थ।
  2. फास्ट फूड, तले हुए स्नैक्स।
  3. प्रोसेस्ड मीट व वनस्पति तेल
  4. कैंडी, कुकीज़, शूगर।
  5. उच्च वसा वाले डेयरी उत्पाद
  6. शराब का सेवन आदि।

50 से ऊपर सीआरपी का क्या मतलब है?

सीआरपी का स्तर 50 mg/dL से ऊपर, और खासकर 100 mg/dL तक, आमतौर पर गंभीर सूजन या संक्रमण का संकेत होता है। ज्यादातर मामलों में, 50 mg/dL से अधिक का स्तर गंभीर बैक्टीरियल संक्रमण से संबंधित होता है। यह अक्सर गंभीर बैक्टीरियल संक्रमण, सेप्सिस, या गंभीर चोट जैसी स्थितियों में देखने को मिलता है।

अगर मेरा सीआरपी ज्यादा है तो मुझे क्या करना चाहिए?

यदि आपका सीआरपी स्तर बढ़ा हुआ है, तो घबराने की आवश्यकता नहीं है। यह केवल एक संकेत है कि आपके शरीर में कहीं सूजन है। ऐसे में आपको अनुभवी डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।

डॉक्टर आपके बढ़े हुए सीआरपी का कारण पता लगाने के लिए कुछ जांचें लिखेंगे और फिर उसके आधार पर उपचार शुरू करेंगे।

सीआरपी स्तर को कम करने के लिए क्या करें? सीआरपी लेवल कम करने के उपाय

  1.  संतुलित आहार का सेवन।
  2.  नियमित योग व व्यायाम।
  3. वजन पर नियंत्रण।
  4. पर्याप्त नींद लें।
  5. तनाव कम करें।
  6. शराब और धूम्रपान से बचें।

टाइफाइड बुखार के लिए सीआरपी स्तर क्या है?

टाइफाइड बुखार एक बैक्टीरियल इन्फेक्शन है, और इसमें सीआरपी का स्तर काफी बढ़ जाता है। हालांकि, सीआरपी का स्तर केवल टाइफाइड में ही नहीं, यह अन्य गंभीर बैक्टीरियल या वायरल संक्रमणों में भी बढ़ सकता है।

टाइफाइड बुखार की बात करें तो, सीआरपी स्तर अक्सर 10 mg/dL से अधिक हो सकता है, और कभी-कभी 50 mg/dL या उससे भी अधिक तक पहुंच जाता है।

कौन सी दवा सीआरपी लेवल कम करती है?

सीआरपी के स्तर को कम करने के लिए कोई विशेष दवा नहीं है, जो सीधे सीआरपी के लिए हो। इसके बजाय, सीआरपी के बढ़े हुए स्तर के कारण का इलाज किया जाता है।

जैसे यदि सूजन संक्रमण के कारण है, तो एंटीबायोटिक्स (बैक्टीरियल संक्रमण के लिए) या एंटीवायरल दवाएं दी जा सकती हैं। यदि यह ऑटोइम्यून बीमारी के कारण है, तो सूजन-रोधी दवाएं (जैसे NSAIDs), कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स, या इम्यूनोसप्रेसेंट दवाएं दी जा सकती हैं। किसी भी दवा का उपयोग डॉक्टर की सलाह के बिना नहीं करना चाहिए।

सीआरपी बढ़ने से क्या होता है?

सीआरपी का बढ़ना एक संकेत है कि शरीर में सूजन हो रही है। यह सूजन शरीर के विभिन्न अंगों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।

यदि यह सूजन पुरानी और लगातार बनी रहती है, तो यह हृदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह, और कुछ कैंसर जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के जोखिम को बढ़ा सकती है।

यह धमनियों की दीवारों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे प्लाक का निर्माण होता है और एथेरोस्क्लेरोसिस होता है, जो हृदय रोग का मूल कारण है।

crp normal range mg/dl

सीआरपी का सामान्य स्तर आमतौर पर 0.9 mg/dL से कम होता है। हालांकि, प्रयोगशालाओं के बीच थोड़ी भिन्नता हो सकती है। hs-CRP के लिए, 1.0 mg/L से कम को निम्न जोखिम माना जाता है, 1.0 से 3.0 mg/L को औसत जोखिम, और 3.0 mg/L से अधिक को उच्च जोखिम माना जाता है।

सीआरपी का कौनसा लेवल खतरनाक है?

सीआरपी का स्तर जो खतरनाक माना जाता है, वह सूजन के कारणों पर निर्भर करता है।

10 mg/dL से अधिक: यह बैक्टीरियल या वायरल संक्रमण, सिस्टेमैटिक वैसक्यूलाइटिस, या बड़ी चोट का संकेत है।

50 mg/dL से अधिक: यह आमतौर पर गंभीर बैक्टीरियल संक्रमण से संबंधित होता है।

100 mg/dL से अधिक: यह बहुत गंभीर सूजन, संक्रमण, या गंभीर ऑटोइम्यून स्थिति का संकेत हो सकता है।

Q1: क्या hs-CRP टेस्ट केवल हृदय रोगों के लिए किया जाता है?

A1: नहीं, hs-CRP टेस्ट हृदय रोगों के जोखिम का अनुमान लगाने में विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि यह हल्की, पुरानी सूजन का पता लगा सकता है। सीआरपी टेस्ट सामान्य रूप से शरीर में किसी भी प्रकार की सूजन का पता लगाने के लिए उपयोग किया जाता है।

Q2: क्या सीआरपी का बढ़ा हुआ स्तर हमेशा गंभीर बीमारी का संकेत होता है?

A2: नहीं, सीआरपी का स्तर कई कारणों से बढ़ सकता है, जिनमें मामूली संक्रमण, चोट या यहां तक कि तनाव भी शामिल है। हालांकि, यदि स्तर बहुत अधिक हैं या लगातार बढ़े हुए हैं, तो ध्यान की आवश्यकता होती है।

Q3: क्या मैं घरेलू उपचारों से सीआरपी के स्तर को कम कर सकता हूँ?

A3: घरेलू उपचार और जीवनशैली में बदलाव, जैसे स्वस्थ आहार, नियमित व्यायाम, वजन पर नियंत्रण, और तनाव कम करना, सूजन को कम करने और सीआरपी के स्तर को स्वाभाविक रूप से कम करने में मदद कर सकते हैं। हालांकि, ये उपाय कारण का इलाज नहीं कर सकते। यदि आपका सीआरपी स्तर बढ़ा हुआ है, तो डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।

Q4: क्या गर्भवती महिलाओं में सीआरपी का स्तर बढ़ा हुआ होता है?

A4: हाँ, गर्भावस्था के दौरान सीआरपी का स्तर स्वाभाविक रूप से थोड़ा बढ़ सकता है। यह गर्भावस्था के दौरान होने वाली शारीरिक सूजन प्रतिक्रियाओं के कारण होता है। हालांकि, किसी भी असामान्य वृद्धि की स्थिति में डॉक्टर से परामर्श अवश्य लें।

Q5: क्या बच्चों में सीआरपी का बढ़ा हुआ स्तर चिंता का विषय है?

A5: बच्चों में सीआरपी का बढ़ा हुआ स्तर अक्सर संक्रमण या सूजन का संकेत होता है। बच्चों में, यह अक्सर बैक्टीरियल संक्रमणों, जैसे निमोनिया या सेप्सिस का संकेत होता है।

सेरोटोनिन बनाम डोपामाइन: आपके मूड और मोटिवेशन में कौन ज्यादा असर डालता है?

क्या आपने कभी हैप्पी हार्मोन या फील-गुड केमिकल्स के बारे में सुना है? हो सकता है आपने इनके बारे में कभी नहीं सुना हो। दरअसल, सेरोटोनिन और डोपामाइन केमिकल्स का संबंध इन्हीं से हैं, जो हमारे दिमाग में बनते हैं और हमारे व्यवहार, भावनाओं और मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करते हैं।

ये दोनों किस तरह अलग हैं? इन दोनों में से हमारे मूड और मोटिवेशन पर किसका ज्यादा असर होता है? इस आर्टिकल में हम इसके बारे में जानेंगे। साथ ही, सेरोटोनिन और डोपामाइन के बीच के अंतर को समझेंगे और जानेंगे कि इन दोनों का संतुलन हमारे लिए क्यों ज़रूरी है।

सेरोटोनिन क्या है? (What is Serotonin?)

सेरोटोनिन एक न्यूरोट्रांसमीटर है जो हमारे दिमाग और शरीर में सिग्नल भेजने का काम करता है। इसे अक्सर मूड स्टेबलाइजर या हैप्पी केमिकल कहा जाता है। सेरोटोनिन का मुख्य काम हमारे मानसिक और शारीरिक संतुलन को बनाए रखना है।

सेरोटोनिन के प्रमुख कार्य

सेरोटोनिन हमें एक शांत, स्थिर और खुशी का एहसास देता है। जिससे हमें भावनात्मक रूप से संतुलित रहने में मदद मिलती है। कुछ विशेष कार्य इस प्रकार हैं।

  1. सेरोटोनिन हमारे मूड को स्थिर रखने और खुशी, संतुष्टि और अच्छे काम की भावना पैदा करने में मदद करता है। कम सेरोटोनिन का स्तर अक्सर डिप्रेशन, बेचैनी और चिड़चिड़ापन से जुड़ा होता है।
  2. सेरोटोनिन से ही हमारे शरीर में मेलाटोनिन नामक हार्मोन बनता है, जो हमारी नींद को नियंत्रित करने काम काम करता है। इसलिए, सेरोटोनिन का सही स्तर अच्छी और गहरी नींद के लिए बहुत आवश्यक है।
  3. हमारे शरीर का लगभग 90% सेरोटोनिन पेट और आंतों में बनता है। यह पाचन क्रिया को नियंत्रित करता है और भूख को भी प्रभावित करता है।
  4. सेरोटोनिन हमारे सामाजिक व्यवहार और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को भी नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

डोपामाइन क्या है? (What is Dopamine?)

डोपामाइन भी न्यूरोट्रांसमीटर ही है, जिसे रिवॉर्ड केमिकल कहा जाता है। डोपामाइन हमें लक्ष्य हासिल करने और खुशी पाने के लिए प्रेरित करता है। यह हमारे दिमाग के रिवॉर्ड सिस्टम का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है।

डोपामाइन के प्रमुख कार्य:

डोपामाइन हमें कुछ करने के लिए प्रेरित करता है, और जब हम वह काम कर लेते हैं, तो हमें एक खुशी का एहसास देता है। कुछ विशेष कार्य इस प्रकार हैं।

  1. जब भी हम कोई ऐसा काम करते हैं, जिससे हमें खुशी या उपलब्धि का एहसास होता है, तो हमारे दिमाग में डोपामाइन रिलीज़ होता है। यह हमें ऐसा काम को दोबारा करने के लिए प्रेरित करता है।
  2. डोपामाइन एक तीव्र और कम समय तक रहने वाली खुशी का एहसास देता है। यह हमें उत्साहित और ऊर्जा से भरा महसूस कराता है।
  3. डोपामाइन हमारे ध्यान और एकाग्रता को भी प्रभावित करता है। इसकी कमी से ध्यान लगाना मुश्किल हो जाता है।
  4. डोपामाइन शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सेरोटोनिन या डोपामाइन: कौन ज्यादा असरदार है?

दरअसल, इन दोनों के बीच का अंतर उनके काम करने के तरीके और उसके प्रभाव के आधार पर समझा जा सकता है। सेरोटोनिन का हमारे मूड पर ज्यादा गहरा और स्थायी असर होता है।

यह हमारे मूड को स्थिर रखता है और भावनात्मक संतुलन बनाए रखता है। डोपामाइन सीधे तौर पर मोटिवेशन से जुड़ा है। यह हमें काम करने, लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रेरित करता है।

हमारे शरीर के लिए इन दोनों केमिकल्स के बीच संतुलन होना बहुत ज़रूरी है। जब ये संतुलित होते हैं, तो हम खुश, प्रेरित और खुद को भावनात्मक मजबूत महसूस करते हैं। यदि एक का स्तर कम या ज़्यादा हो जाए, तो मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं आने लगती हैं।

सेरोटोनिन और डोपामाइन को कैसे बढ़ाएं?

हम अपनी जीवनशैली में निम्नलिखित बदलाव करके इन दोनों महत्वपूर्ण न्यूरोट्रांसमीटर के स्तर को संतुलित कर सकते हैं।

  1. शारीरिक गतिविधियों में बढ़ोतरी। नियमित योग एवं व्यायाम करें।
  2. संतुलित एवं पौष्टिक आहार ग्रहण करें।
  3. पर्याप्त और अच्छी नींद दोनों न्यूरोट्रांसमीटर के जिए जरूरी है।
  4. धूप में रहें, इससे सेरोटोनिन का स्तर बढ़ता है।
  5. ध्यान और योग तनाव दोनों न्यूरोट्रांसमीटर को संतुलित रखने में मददगार है।
  6. लक्ष्य निर्धारित करके काम करें, इससे डोपामाइन का स्तर बेहतर होगा।

सेरोटोनिन हमें खुशी प्रदान करता है और संतुलन रखता है। जबकि डोपामाइन हमें उस खुशी को पाने के लिए प्रेरित करता है। ये दोनों मिलकर हमारे जीवन में एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन का निर्माण करते हैं। इन दोनों का हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।

बार-बार फ्रैक्चर क्यों होता है? जानें कारण और समाधान?

जब कभी किसी दुर्घटना या अन्य कारण से हमारे शरीर की कोई हड्डी टूट जाती है तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर बुरा असर पड़ता है। इसकी वजह से हमारे कई काम प्रभावित होते हैं, और हम दर्द से भी परेशान रहते हैं।

किसी विशेष कारण से कभी-कभी हड्डी टूटना आम बात हो सकती है, लेकिन अगर आपको बार-बार फ्रैक्चर हो रहे हैं, तो यह चिंता की बात है जिस पर तुरंत ध्यान देना ज़रूरी है।

बार-बार फ्रैक्चर होने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से कुछ आपकी सेहत से जुड़े होते हैं और कुछ आपकी जीवनशैली से भी। ऐसे में इस आर्टिकल में हम बार-बार फ्रैक्चर होने के कारणों और उनसे निपटने के प्रभावी तरीकों पर चर्चा करेंगे।

बार-बार फ्रैक्चर होने के मुख्य कारण

हम सभी जानते हैं कि हड्डियाँ हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी है। यह हमारे शरीर को सहारा देती हैं, और हमें चलने-फिरने में मदद करती हैं।

अंगों को संभालने और उसके संचालन में हड्डी का बहुत बड़ा रोल रहता है। जैसे हमारे हाथ, पैर, मुंह आदि। जब ये कमज़ोर हो जाती हैं, तो छोटी-मोटी चोट भी बड़े फ्रैक्चर का कारण बन जाती है। बार-बार फ्रैक्चर होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं, जो इस प्रकार है।

1. ऑस्टियोपोरोसिस या हड्डियों का कमज़ोर होना

यह हड्डियों के बार-बार फ्रैक्चर होने का सबसे बड़ा और आम कारण माना गया है, हालांकि यह बुज़ुर्गों में अधिक देखने को मिलता है।

ऑस्टियोपोरोसिस एक ऐसी स्थिति है जिसमें हड्डियाँ अंदर से खोखली और भुरभुरी हो जाती हैं। ऐसे में जरा सी चोट लगने पर भी वह टूट जाती है। यह आमतौर पर कैल्शियम और विटामिन डी की कमी से होता है, जो हड्डियों के निर्माण के लिए बेहद ज़रूरी हैं।

2. सही पोषण की कमी

हड्डियों को मज़बूत रखने के लिए कैल्शियम के अलावा विटामिन डी, फ़ास्फोरस, मैग्नीशियम और प्रोटीन जैसे पोषक तत्व भी बेहद ज़रूरी हैं।

विटामिन डी शरीर को कैल्शियम सोखने में मदद करता है, जबकि प्रोटीन हड्डियों के ढांचे का एक अहम हिस्सा है। अगर भोजन में इन पोषक तत्वों की कमी है, तो आपकी हड्डियाँ धीरे-धीरे कमज़ोर हो सकती हैं और फ्रैक्चर का खतरा बढ़ सकता है।

3. कुछ ख़ास बीमारियां

कुछ खास बीमारियां भी सीधे तौर पर हड्डियों को कमज़ोर कर सकती हैं, या शरीर में पोषक तत्वों के अवशोषण को प्रभावित कर सकती हैं। वे इस प्रकार हैं।

— हाइपरपैराथायरायडिज्म: इसमें पैराथायरायड ग्रंथियां आवश्यकता से अधिक पैराथायरायड हार्मोन बनाती हैं, जिससे हड्डियों से कैल्शियम निकल कर खून में चला जाता है और हड्डियाँ कमज़ोर हो जाती हैं।

— सीलिएक रोग: यह पाचन संबंधी विकार है जहाँ शरीर ग्लूटेन को पचा नहीं पाता है। इससे छोटी आँत में पोषक तत्वों का अवशोषण प्रभावित होता है, जिससे हड्डियों के लिए ज़रूरी पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।

— अल्सरेटिव कोलाइटिस: ये पेट की सूजन वाली बीमारियां हैं, जो भी पोषक तत्वों के अवशोषण में बाधा डालती हैं।

— किडनी रोग: किडनी, शरीर में कैल्शियम और फ़ास्फोरस के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। किडनी की बीमारी में यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे हड्डियाँ कमज़ोर हो सकती हैं।

— रुमेटीइड गठिया : ये बीमारियाँ हड्डियों के घनत्व को कम कर सकती हैं, क्योंकि इन बीमारियों में शरीर की अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली हड्डियों पर हमला करती है।

— कुछ कैंसर : हड्डियों का कैंसर सीधे हड्डियों को कमज़ोर कर सकता है। इसके अलावा, कुछ कीमोथेरेपी या रेडिएशन थेरेपी भी हड्डियों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालती हैं।

4. दवाओं के साइड इफेक्ट्स:

कुछ दवाएं भी अगर लंबे समय तक ली जाएं तो हड्डियों के स्वास्थ्य पर बूरा प्रभाव डालती हैं। उदाहरण के लिए, कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स अस्थमा, गठिया या अन्य सूजन संबंधी बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होते हैं, जिसका असर भी प्रभावित करता है। मिर्गी, पेट के अल्सर के लिए प्रोटॉन पंप इनहिबिटर, और कुछ कैंसर की दवाएँ भी हड्डियों के घनत्व को कम कर सकती हैं।

5. आनुवंशिक कारक:

कुछ लोगों में आनुवंशिक कारणों से उनकी हड्डियाँ कमज़ोर होती हैं या वे हड्डियों से संबंधित बीमारियों से ग्रसित होते हैं। अगर आपके परिवार में किसी को बार-बार फ्रैक्चर या ऑस्टियोपोरोसिस की समस्या रही है, तो आपको भी इसका जोखिम हो सकता है।

6. शारीरिक गतिविधियों में कमी:

हड्डियों को मजबूत रखने के लिए हड्डियों पर हल्का वजन डालने वाली शारीरिक गतिविधियां जरूरी है। जब हम चलते हैं, दौड़ते हैं या कूदते हैं, तो हड्डियों पर हल्का तनाव पड़ता है जो उन्हें मज़बूत और घना बनाने में मददगार है।

अगर आप ज़्यादा देर तक बैठे रहते हैं या पर्याप्त शारीरिक गतिविधि नहीं करते, तो आपकी हड्डियां धीरे-धीरे कमज़ोर हो सकती हैं।

7. अत्यधिक शराब का सेवन और धूम्रपान:

अत्यधिक शराब का सेवन और धूम्रपान हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए खराब है। शराब हड्डियों के निर्माण और मरम्मत की प्रक्रिया में बाधा डालती है और शरीर में कैल्शियम के अवशोषण को कम करती है।

सिगरेट में निकोटिन होता है, जो हड्डियों में रक्त प्रवाह को कम करता है और हड्डियों को बनाने वाली कोशिकाओं की गतिविधि को धीमा कर देता है, जिससे हड्डियाँ कमज़ोर हो जाती हैं।

8. बार-बार गिरना:

यदि आपको संतुलन संबंधी समस्याओं, मांसपेशियों की कमज़ोरी, आँखों की रोशनी में कमी, या किसी तंत्रिका संबंधी समस्या के कारण बार-बार गिरने की समस्या है, तो भी फ्रैक्चर होने की संभावना बढ़ जाती है। हालांकि इसमें हड्डी की कमजोरी वाला मामला नहीं है

बार-बार फ्रैक्चर का समाधान और रोकथाम

अगर आपको बार-बार फ्रैक्चर हो रहे हैं, तो इसे हल्के में न लें। ऐसी स्थिति में तुरंत किसी हड्डी रोग विशेषज्ञ से सलाह लेना बहुत ज़रूरी है। डॉक्टर आपके लक्षणों, मेडिकल हिस्ट्री और कुछ ख़ास टेस्ट के आधार पर सटीक कारण का पता लगाकर उपचार शुरू करेंगे।

उपरोक्त अलावा निम्नलिखित उपाय आपके लिए बार-बार होने वाले फ्रैक्चर से राहत दिला सकते हैं।

1. पोषक तत्वों का पर्याप्त सेवन :

— कैल्शियम: अपने आहार में कैल्शियम से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे दूध, दही, पनीर, हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, बादाम, तिल, टोफू और फोर्टीफाइड जूस को शामिल करें।

— विटामिन डी: रोज़ाना सुबह की धूप में 15-20 मिनट तक अवश्य बैठें। मछली, अंडे की ज़र्दी और फोर्टीफाइड दूध या अनाज का सेवन करें।

— अन्य पोषक तत्व: खाने में वे पदार्थ शामिल करें जिसमें प्रोटीन, मैग्नीशियम और फ़ास्फोरस भी पर्याप्त मात्रा में हो।

2. नियमित व्यायाम को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं।
3. शराब और धूम्रपान का सेवन नहीं करें।
4. पर्याप्त नींद लें और वजन पर नियंत्रण रखें।
5. निश्वित समयांतराल पर स्वास्थ्य जाचं करवाते रहें।

बार-बार फ्रैक्चर होना एक गंभीर चेतावनी का संकेत है, जिसे कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। अपनी हड्डियों के स्वास्थ्य का ध्यान रखना आपके स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता के लिए बेहद ज़रूरी है। हड्डियों से जुड़ी किसी भी समस्या और चिकित्सा सहायता के लिए डॉ. चौधरी हॉस्पीटल, उदयपुर में विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें।

खाली पेट और खाने के बाद ब्लड शुगर की तुलना: आपकी हेल्थ रिपोर्ट क्या कहती है?

ब्लड शुगर जिसे रक्त शर्करा भी कहा जाता है। यह हमारे शरीर के लिए ऊर्जा का मुख्य स्रोत होती है। सामान्य भाषा में कहे तो यह वह ग्लूकोज है जो हम भोजन से प्राप्त करते हैं और यह खून में घूमता रहता है। हमारे शरीर की हर कोशिका को ठीक से काम करने के लिए इसकी आवश्यकता होती है।

हालांकि, इसका स्तर सामान्य सीमा में रहना जरूरी है। ब्लड शुगर का स्तर बहुत अधिक या बहुत कम होने पर स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।

इस आर्टिकल में हम ब्लड शुगर से जुड़े विषयों और खाली पेट और खाने के बाद ब्लड शुगर की तुलना पर चर्चा करेंगे।

ब्लड शुगर क्या है?

ब्लड शुगर, जिसे ग्लूकोज भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की चीनी है जो हमारे रक्त में पाई जाती है। जब हम भोजन करते हैं, तो उसके जरिये यह शरीर को प्राप्त होती है।

जब हम खाना खाते हैं, तो हमारा शरीर कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में तोड़ देता है, जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है। इंसुलिन, अग्न्याशय से उत्पादित एक हार्मोन है, जो ग्लूकोज को रक्त से कोशिकाओं में जाने में मदद करता है।

ब्लड शुगर क्या काम करता है?

ब्लड शुगर मुख्य रूप से भोजन के माध्यम से शरीर में आता है। जब हम कार्बोहाइड्रेट खाते हैं, जैसे कि रोटी, चावल, फल और सब्जियां तो हमारा पाचन तंत्र उन्हें ग्लूकोज में तोड़ देता है। यह ग्लूकोज फिर रक्तप्रवाह यानी शरीर में बहने वाले रक्त में अवशोषित हो जाता है।

इसके अलावा, हमारा यकृत यानी लीवर भी ग्लूकोज का उत्पादन और भंडारण कर सकता है, ताकि रक्त शर्करा के स्तर को स्थिर रखा जा सके। यह उस समय ज्यादा काम आता है जब हम भोजन नहीं कर रहे होते हैं।

खाली पेट ब्लड शुगर की जांच क्यों की जाती है?

खाली पेट ब्लड शुगर जिसे Fasting Blood Sugar – FBS भी कहते हैं, इसकी जांच सुबह भूखे पेट होती है। यह जांच इसलिए महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि इससे यह समझने में मदद करती है कि आपका शरीर इंसुलिन के बिना ग्लूकोज को कितनी अच्छी तरह नियंत्रित कर रहा है, यानी भोजन से प्राप्त ग्लूकोज के प्रभाव के बिना क्या स्थिति है।

खाने के बाद ब्लड शुगर की जांच क्यों की जाती है?

खाने के बाद ब्लड शुगर जिसे Postprandial Blood Sugar – PPBS की जांच कहा जाता है। यह खाने के बाद 2 घंटे बाद की जाती है। यह जांच यह जानने के लिए की जाती है कि आपका शरीर भोजन से प्राप्त ग्लूकोज को कितनी अच्छी तरह संभाल रहा है।

भोजन के बाद ब्लड शुगर का स्तर बढ़ना सामान्य है, लेकिन यदि यह एक निश्चित सीमा से ज्यादा बढ़ता है और लंबे समय तक उच्च रहता है, तो यह डायबिटीज का संकेत हो सकता है।

खाली पेट और खाने के बाद शुगर की जांच क्यों की जाती है?

दरअसल, ब्लड शुगर के स्तर की सटीक रिपोर्ट के लिए खाली पेट और खाने के बाद दोनों तरह की जांच की जाती है। इन दोनों रिपोर्ट की तुलना करके, डॉक्टर आपके शरीर की ग्लूकोज को नियंत्रित करने की क्षमता का मूल्यांकन करते हैं।

इसमें भूखे पेट जांच से यह मालूम चलता है कि आपका लिवर कितनी अच्छी तरह ग्लूकोज का उत्पादन और भंडारण कर रहा है। आपका शरीर आराम की स्थिति में इंसुलिन का उपयोग कैसे कर रहा है।

खाने के बाद की जांच से मालूम चलता है कि भोजन के बाद आपका शरीर कितनी कुशलता से ग्लूकोज को अवशोषित और उपयोग कर रहा है।

ब्लड शुगर कितना होना चाहिए?

ब्लड शुगर का सामान्य स्तर व्यक्ति की उम्र और स्वास्थ्य स्थिति के अनुसार अलग अलग हो सकता है। आमतौर पर, खाली पेट ब्लड शुगर 70-99 mg/dL होना चाहिए, जबकि खाने के 2 घंटे बाद यह 140 mg/dL से कम होना चाहिए।

यदि खाली पेट शुगर 100-125 mg/dL या खाने के बाद 140-199 mg/dL है, तो यह प्री-डायबिटीज हो सकता है।

वहीं, अगर खाली पेट शुगर 126 mg/dL या अधिक, और खाने के बाद 200 mg/dL या अधिक है, तो यह डायबिटीज का संकेत है।

ब्लड शुगर लो क्यों होता है

ब्लड शुगर का कम होने को हाइपोग्लाइसीमिया कहा जाता है। यह तब होता है जब रक्त में ग्लूकोज का स्तर सामान्य से नीचे चला जाता है।

इसके मुख्य कारणों में डायबिटीज की दवाओं की अधिक खुराक या गलत समय पर दवाएं लेना, भोजन नहीं करना या खाने के बीच लंबा अंतराल, अत्यधिक शारीरिक गतिविधि, खाली पेट शराब का सेवन, और कुछ चिकित्सीय स्थितियां जैसे लिवर या किडनी की समस्याएँ शामिल हैं। यदि आपको बार-बार ब्लड शुगर कम होने के लक्षण महसूस होते हैं, तो डॉक्टर से सलाह अवश्य लें।

ब्लड शुगर कम होने के लक्षण क्या है?

ब्लड शुगर कम होने के लक्षण निम्नलिखित हैं।

1. चक्कर आना
2. पसीना आना
3. कंपकंपी
4. कमजोरी
5. भ्रम और दिल की धड़कन तेज होना।

ब्लड शुगर बढ़ने के लक्षण

ब्लड शुगर बढ़ने के लक्षण निम्नलिखित हैं।

1. अत्यधिक प्यास लगना
2. बार-बार पेशाब आना
3. थकान महसूस होना
4. धुंधली दृष्टि व सिरदर्द
5. बिना कारण वजन कम होना
6. घावों का देर से भरना

अगर आपको भी शरीर में शुगर की मात्रा कम होने या बढ़ने के लक्षण महसूस होते हैं, और वे बने रहते हैं तो तुरंत डॉक्टर को दिखाना चाहिए। डॉक्टर आपकी खाली पेट व खाने के बाद शुगर की जाचें करवाएंगे।

साथ ही आवश्यकता पड़ने पर पिछले तीन माह की रिपोर्ट के लिए भी खून की जांच करवाई जा सकती है। इसके बाद डॉक्टर आपकी खाली पेट व खाने के बाद की शुगर जांच के आधार पर आपको दवाएं देंगे। साथ ही, यह ही यह भी निष्कर्ष निकालेंगे कि आपको डायबिटीज है या नहीं और अगर है तो किस स्टेज पर है।

LDL, HDL और ट्राइग्लिसराइड्स: कौन सा कोलेस्ट्रॉल दिल के लिए खतरनाक है?

आजकल की तनावपूर्ण और भागदौड़ भरी ज़िंदगी में हमारे खान-पान और जीवनशैली का सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है। जिसका संबंध कोलेस्ट्रॉल से होता है।

आपने कई बार लोगों से कोलेस्ट्रॉल के बारे में जरूर सुना होगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कोलेस्ट्रॉल सिर्फ एक नहीं, बल्कि कई प्रकार का होता है, और इनमें से कुछ तो हमारे दिल के लिए खतरनाक तक हो सकते।

इस आर्टिकल में, हम आपको LDL, HDL और ट्राइग्लिसराइड्स के बारे में विस्तार से बताएंगे। आर्टिकल में हम जानेंगे कि कौन सा कोलेस्ट्रॉल आपके दिल को नुकसान पहुंचाता है और इसे कैसे कम किया जा सकता है।

कोलेस्ट्रॉल क्या है? (What is Cholesterol?)

सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि कोलेस्ट्रॉल क्या होता है? कोलेस्ट्रॉल एक वसानुमा पदार्थ होता है जो हमारे शरीर की हर कोशिका में पाया जाता है। यह मोम की तरह होता है, और लीवर इसे बनाता है।

हमारे शरीर को स्वस्थ कोशिकाओं, हार्मोन जैसे विटामिन डी, टेस्टोस्टेरोन और एस्ट्रोजन और पाचन में मदद करने वाले पित्त लवण बनाने के लिए कोलेस्ट्रॉल की थोड़ी मात्रा की ज़रूरत होती है। यह हमारे भोजन से भी आता है, जब हम मांस, अंडे और डेयरी उत्पादों का सेवन करते हैं।

यहां समझने वाली बात यह​ है कि कोलेस्ट्रॉल खुद पानी में नहीं घुलता, इसलिए इसे रक्तप्रवाह में ले जाने के लिए लाइपोप्रोटीन नामक कणों की आवश्यकता होती है।

ये लाइपोप्रोटीन दो मुख्य प्रकार के होते हैं। कम घनत्व वाले लाइपोप्रोटीन जिन्हें LDL और उच्च घनत्व वाले लाइपोप्रोटीन जिन्हें HDL कहा जाता है। अब इन दोनों के बारे में समझेंगे।

LDL क्या होता है? (LDL Cholesterol Explained)

LDL का पूरा नाम कम घनत्व वाला लाइपोप्रोटीन (Low-Density Lipoprotein) है। इसे हम खराब कोलेस्ट्रॉल के नाम से भी पहचानते हैं। इसका काम यह होता है कि यह कोलेस्ट्रॉल को लीवर से शरीर की कोशिकाओं तक ले जाता है।

यदि रक्त में LDL का स्तर बहुत अधिक हो जाता है, तो यह धमनियों यानी रक्त वाहिकाओं की दीवारों पर जमना शुरू हो जाता है।

रक्त वाहिकाओं की दीवारों पर LDL का जमाव धीरे-धीरे प्लाक का रूप ले लेता है, जिससे धमनियां संकरी और कठोर हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को एथेरोस्क्लेरोसिस (Atherosclerosis) कहा जाता है।

ये संकरी धमनियां रक्त प्रवाह को बाधित कर सकती हैं, और आगे चलकर इसी वजह से व्यक्ति को हृदय रोग, Heart Attack या स्ट्रोक (Stroke) की समस्या आती है।

HDL क्या होता है? (HDL Cholesterol Explained)

HDL को उच्च घनत्व वाला लाइपोप्रोटीन (High-Density Lipoprotein) कहा जाता है। इसे अच्छा कोलेस्ट्रॉल कहा जाता है। HDL का काम LDL के ठीक विपरीत होता है।

HDL अतिरिक्त कोलेस्ट्रॉल को शरीर की कोशिकाओं और धमनियों से वापस लीवर तक ले जाता है, जहाँ से इसे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।

ऐसे में पर्याप्त मात्रा में HDL होने से धमनियों में प्लाक जमने से रोकने में मदद मिलती है, जिससे हृदय रोग का जोखिम कम होता है। इसलिए, HDL का स्तर जितना अधिक हो, हार्ट के स्वास्थ्य के लिए उतना ही बेहतर माना गया है।

ट्राइग्लिसराइड्स क्या है? (What are Triglycerides?)

ट्राइग्लिसराइड्स एक और प्रकार की वसा होती है जो हमारे रक्त में पाई जाती है। जब हम खाना खाते हैं, तो हमारा शरीर उन कैलोरीज़ को ट्राइग्लिसराइड्स में बदल देता है जिनका तुरंत उपयोग नहीं किया जाता है।

इन ट्राइग्लिसराइड्स को बाद में ऊर्जा के रूप में उपयोग करने के लिए वसा कोशिकाओं में संग्रहित​ किया जाता है।

हालांकि, ट्राइग्लिसराइड्स का हाई लेवल भी हृदय रोग के जोखिम को बढ़ा सकता है। ऐसा तब होता है जब LDL का स्तर भी उच्च होता है। उच्च ट्राइग्लिसराइड्स आमतौर पर अत्यधिक कैलोरी वाला भोजन करने, पर्याप्त शारीरिक गतिविधि न करने से जुड़ा होता है।

कौन सा कोलेस्ट्रॉल दिल के लिए खतरनाक है? (Which Cholesterol is Dangerous for Heart?)

सीधे तौर पर कहा जाए तो LDL जिसे खराब कोलेस्ट्रॉल ​कहा जाता है, यह हमारे दिल के लिए सबसे ज़्यादा खतरनाक है। जब इसका स्तर बढ़ता है, तो यह धमनियों में जमा होकर उन्हें संकरा कर देता है।

जिससे रक्त प्रवाह धीमा हो जाता है। इसकी वजह से दिल का दौरा पड़ने और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। दूसरी ओर, HDL जिसे हम अच्छा कोलेस्ट्रॉल कहते हैं। यह हमारे दिल की रक्षा करता है, क्योंकि यह अतिरिक्त कोलेस्ट्रॉल को धमनियों से हटाकर वापस लीवर तक पहुंचाता है।

इसलिए, हमें हमारे दिल को स्वस्थ रखने के लिए LDL और ट्राइग्लिसराइड्स के स्तर को कम रखने और HDL के स्तर को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।

कोलेस्ट्रॉल कम कैसे करें? (How to Reduce Cholesterol?)

हमें हमारे दिल को स्वस्थ रखने के लिए कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए जीवनशैली में बदलाव ज्यादा जरूरी है। यहां पर हम कुछ उपायों के बारे में बता रहे हैं, जिन्हें आप अपना सकते हैं।

1. पौष्टिक एवं संतुलित आहार का सेवन करें।
2. नियमित योग एवं व्यायाम करें। मदद करता है।
3. वजन को नियंत्रित रखें।
4. शराब एवं धूम्रपान का सेवन नहीं करें।
5. चिंता एवं तनाव से दूर रहे।
6. नियमित रूप से अपने कोलेस्ट्रॉल की जांच करवाएं।
7. डॉक्टर से परामर्श लें।

सवाल जवाब

1. कोलेस्ट्रॉल कम करने के घरेलू उपाय / कोलेस्ट्रॉल घटाने के लिए क्या खाएं?

जवाब: खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करने के लिए आप ओट्स, दालें, फलियां, सेब, नाशपाती, एबादाम, अखरोट, अलसी के बीज, चिया सीड्स, वसायुक्त मछली और जैतून का तेल जैसे घुलनशील फाइबर और स्वस्थ वसा वाले खाद्य पदार्थ जरूर खाएं। प्रोसेस्ड फूड और रेड मीट का सेवन कम करें।

2. हाई कोलेस्ट्रॉल के लक्षण क्या हैं?

जवाब: हाई कोलेस्ट्रॉल के आमतौर पर कोई सीधे दिखाई पड़ने वाले लक्षण नहीं होते हैं। इसे साइलेंट किलर कहा जाता है। क्योंकि इसका पता नियमित खून की जांच से ही चलता है। गंभीर मामलों में यह हृदय रोग का कारण बन सकता है, जिसके लक्षण सीने में दर्द, सांस फूलना या पैर में दर्द होते हैं।

3. कोलेस्ट्रॉल की नॉर्मल रेंज क्या है?

जवाब: इसे इस तरह समझ सकते हैं।

कुल कोलेस्ट्रॉल (Total): 200 mg/dL से कम होना चाहिए।

एलडीएल (LDL – खराब): 100 mg/dL से कम होना चाहिए।

एचडीएल (HDL – अच्छा): 60 mg/dL या ज़्यादा होना चाहिए।

ट्राइग्लिसराइड्स: 150 mg/dL से कम होना चाहिए।

4. क्या केला खाने से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है?

जवाब: जी नहीं, केला खाने से कोलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है। केले में घुलनशील फाइबर होता है जो LDL कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करता है।

5. कोलेस्ट्रॉल और हार्ट अटैक का क्या संबंध है?

जवाब: देखिए, जब LDL यानी खराब कोलेस्ट्रॉल धमनियों में जमा होकर प्लाक बनाता है, तो यह धमनियों को संकरा कर देता है। यदि यह प्लाक टूट जाता है और रक्त का थक्का बन जाता है, तो ऐसे में हृदय तक रक्त प्रवाह पूरी तरह अवरुद्ध कर सकता है, जिससे हार्ट अटैक आने की संभावना रहती है।

कोलेस्ट्रॉल हमारे शरीर के लिए बहुत ज़रूरी है, लेकिन इसके स्तर को संतुलित रखना भी उतना ही जरूरी है। दिल के स्वास्थ्य के लिए इसकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।

आसान भाषा में समझें तो LDL और ट्राइग्लिसराइड्स को नियंत्रित रखना और HDL को बढ़ाने से हमारा दिल स्वस्थ रहेगा। इसके लिए जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव लाकर जैसे स्वस्थ आहार लेना, नियमित व्यायाम, वजन नियंत्रण, धूम्रपान छोड़कर आप आप अपने कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित कर सकते हैं।

इसके साथ ही, नियमित स्वास्थ्य जांच और डॉक्टर से परामर्श भी जरूरी है। किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य समस्या के लिए डॉक्टर से परामर्श अवश्य लें।

खाने के बाद हल्का सीने में दर्द और चक्कर आना: क्या यह दिल की चेतावनी है या पाचन की गड़बड़ी?

आपने कभी कभार लोगों को यह कहते जरूर सुना होगा कि भोजन करने के बाद उनके सीने में दर्द होने लगता है। इतना ही नहीं, कभी कभार खाने के बाद चक्कर आने जैसी समस्याएं भी देखने को मिलती हैं।

लेकिन कभी आपने सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? और अगर इस तरह की समस्याएं हो रही हैं तो क्या यह सामान्य है? या फिर आपका हार्ट आपको कोई चेतावनी दे रहा है? क्या पाचन संबंधी समस्याओं में ऐसा होता है?

देखिए! खाने के बाद सीने में हल्का दर्द और चक्कर आना एक बार के लिए सामान्य हो सकता है, लेकिन कभी-कभी यह चिंता का विषय भी हो सकता है। कई लोग इस समस्या को हार्ट अटैक से जोड़कर देखते हैं, तो कई बार पाचन संबंधी समस्याओं के कारण भी ऐसा हो सकता है।

इस आर्टिकल में इस बारे में विस्तार से जानेंगे कि खाने के बाद सीने में दर्द क्यों होता है? और खाने के बाद चक्कर क्यों आते हैं, और हमें कब सर्तकता बरतने की आवश्यकता है।

खाने के बाद सीने में दर्द क्यों होता है?

आमतौर पर खाने के बाद सीने में दर्द के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से कुछ तो सामान्य होते हैं, और कुछ गंभीर होते हैं। सबसे पहले, यह समझना ज़रूरी है कि हमारा पाचन तंत्र और दिल, दोनों ही शरीर के ऊपरी हिस्से में होते हैं, इसलिए इनके लक्षण समान हो सकते हैं। हम इनकी पहचान करना आना चाहिए।

सबसे पहले हम पाचन संबंधी कारणों को समझेंगे, जो इस प्रकार हैं।

1. एसिड रिफ्लक्स: इसे सीने में दर्द का सबसे आम कारण माना है। जब पेट का एसिड भोजन नली में वापस आ जाता है, तो इससे छाती में जलन महसूस होने लगती है, जिसे हार्टबर्न कहा जाता है। ऐसा तब होता है जब हम मसालेदार या तला हुआ भोजन करके तुरंत लेट जाते हैं।

2. अपच: जब हम भारी खाना खाते हैं, तो पेट में गैस बनती है, जिससे दबाव महसूस होता है और सीने में हल्का दर्द होता है। ये दर्द अक्सर पेट के ऊपरी हिस्से से शुरू होकर छाती तक महसूस होता है।

3. गैस्ट्राइटिस या अल्सर: जब पेट की अंदरूनी परत में सूजन या घाव हो जाता है, तो ऐसे में खाने के बाद दर्द बढ़ सकता है, जो सीने तक फैल जाता है।

4. पित्ताशय की पथरी: अगर पित्ताशय में पथरी है, तो ऐसे में भारी या वसायुक्त भोजन के बाद सीने में तेज दर्द हो सकता है, जो अक्सर दाहिने कंधे तक फैल जाता है।

5. ग्रासनली में ऐंठन: कभी-कभी भोजन नली की मांसपेशियों में ऐंठन होने से भी ऐसा होता है। जिससे सीने में दर्द हो सकता है। यह दर्द अक्सर हार्ट अटैक जैसा लग सकता है।

हृदय संबंधी कारण

1. एनजाइना : एनजाइना दिल की मांसपेशियों को पर्याप्त मात्रा में रक्त नहीं मिल पाने के कारण होता है। खाने के बाद, पाचन के लिए अधिक रक्त पेट की ओर जाता है, जिससे दिल पर दबाव पड़ने की संभावना बढ़ जाती है और एनजाइना का दर्द बढ़ सकता है। यह दर्द अक्सर सीने के बीच में भारीपन जैसा महसूस होता है, और बांहों, गर्दन या जबड़े तक भी फैल सकता है।

2. हार्ट अटैक: कभी-कभी हार्ट अटैक के लक्षण भी खाने के बाद दिख सकते हैं। लेकिन आमतौर पर ऐसा कम देखने को मिलता है। हार्ट अटैक में सीने में तेज और लगातार दर्द होता है, जिसके साथ सांस लेने में तकलीफ, पसीना आना और चक्कर आने की समस्या भी देखने को मिलती है।

खाने के बाद चक्कर क्यों आते हैं?

खाने के बाद चक्कर आना भी चिंताजनक हो सकता है। इसके भी कई कारण होते हैं।

1. पोस्टप्रैन्डियल हाइपोटेंशन : यह सबसे सामान्य कारण है। जब हम खाना खाते हैं, तो शरीर का अधिकांश रक्त पाचन तंत्र की ओर चला जाता है। इससे शरीर के अन्य हिस्सों में खासकर मस्तिष्क में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है, जिससे चक्कर आ सकते हैं।

2. ब्लड शुगर में उतार-चढ़ाव: खासकर डायबिटीज रोगियों में खाने के बाद ब्लड शुगर का स्तर तेजी से बढ़ या घट सकता है, जिससे चक्कर आने की संभावना रहती है।

3. डिहाइड्रेशन: अगर हम पर्याप्त पानी नहीं पीते हैं, तो भी चक्कर आने की समस्या हो सकती है। क्योंकि खाने के बाद शरीर को पाचन के लिए अतिरिक्त तरल पदार्थ की आवश्यकता होती है। उसकी कमी होने से भी चक्कर आते हैं।

4. दवाओं का साइड इफेक्ट: कुछ विशेष दवाओं जैसे बीपी आदि के सेवन से भी यह समस्या देखने को मिलती है।

5. एनीमिया : जब हमारे शरीर में खून की कमी होती है, तब ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है, जिससे भी चक्कर आ सकते हैं।

खाने के बाद सीने में दर्द के लक्षण

खाने के बाद सीने में दर्द के लक्षणों को पहचानना बहुत ज़रूरी है ताकि सही समय पर उपचार कर सके। खाने के बाद सीने में दर्द के लक्षणों को भी हम पाचन और हृदय संबंधी में अलग अलग तरीके से समझ सकते हैं।

पाचन संबंधी दर्द के लक्षण

1. सीने के निचले हिस्से या पेट के ऊपरी हिस्से में जलन या तेज दर्द।
2. खाने के बाद या लेटने पर दर्द।
3. खट्टी डकारें, कड़वाहट या भोजन का वापस ऊपर आना।
4. पेट फूलना, गैस या पेट में ऐंठन।

हृदय संबंधी दर्द के लक्षण:

1. सीने के बीच में भारीपन, दबाव, जकड़न जैसा दर्द।
2. दर्द का बांहों (खासकर बाईं बांह), गर्दन, जबड़े, पीठ या पेट तक फैलना।
3. सांस लेने में तकलीफ, पसीना आना, जी मिचलाना या उल्टी।
4. चक्कर आना या बेहोशी जैसा महसूस होना।

खाने के बाद सीने में दर्द होने पर क्या करें?

देखिए, इसके लिए आपको दर्द का प्रकार एवं लक्षणों को समझना बहुत जरूरी है। इसी के आधार पर अनुमान लगाया जा सकेगा कि आपको किस प्रकार का दर्द हो रहा है। यदि लगता है ये दर्द पाचन संबंधी है तब क्या करना चाहिए।

1. डॉक्टर की सलाह पर एसिड कम करने वाली दवाएं लें।
2. खाने के तुरंत बाद लेटे नहीं, कुछ देर टहलें या सीधे बैठें।
3. हमेशा ढीले कपड़े पहनें, टाइट कपड़े सीने पर दबाव बढ़ाते हैं।
4. मसालेदार, तैलीय या भारी भोजन के सेवन से बचें।
5. धूम्रपान और शराब के सेवन से बचें।

यदि दर्द हृदय संबंधी लक्षणों से जुड़ा महसूस हो, तब क्या करना चाहिए।

अगर आपको सीने में तेज दबाव, जकड़न, सांस लेने में तकलीफ, पसीना और चक्कर आने जैसे लक्षण महसूस होते हैं, तो तुरंत एम्बलेंस पर 108 या अपने स्थानीय आपातकालीन नंबर पर कॉल करें। इसे हल्के में न लें! जितना जल्दी हो सके डॉक्टर को दिखाएं। ऐसे समय में घबरांए नहीं, गले और कमर के आसपास के कपड़े ढीले करें। ज्यादा समस्या होने पर आवश्यकता पड़ने पर सीपीआर दें।

क्या खाने के बाद सीने में दर्द हार्ट अटैक की चेतावनी है?

जी हां, खाने के बाद सीने में दर्द कभी-कभी हार्ट अटैक की चेतावनी हो सकता है, जब लक्षण हार्ट संबंधी दिखे। इन लक्षणों में दर्द छाती के बीच में होना, दबाव या भारीपन जैसा महसूस हो, और साथ में सांस लेने में तकलीफ, पसीना, जी मिचलाना, या दर्द का बांहों, गर्दन या जबड़े तक फैल जाए तो खाने के बाद सीने में दर्द हार्ट से जुड़ी बीमारी का संकेत हो सकता है।

आपको यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि खाने के बाद पाचन के लिए रक्त प्रवाह बढ़ने से दिल पर दबाव पड़ सकता है, जिससे एंजाइना या दिल का दौरा पड़ सकता है, खासकर यदि व्यक्ति को पहले से ही हृदय रोग हो। ऐसे में तुरंत डॉक्टर को दिखाए।

क्या खाने के बाद सीने में दर्द पाचन की गड़बड़ी है?

आमतौर पर तो खाने के बाद सीने में दर्द पाचन की गड़बड़ी का ही संकेत होता है। एसिड रिफ्लक्स, अपच, गैस, और पेट के अल्सर आदि समस्याओं के कारण ऐसी समस्याएं देखने को मिलती है। पेट फूलना, खट्टी डकारें और मुंह में कड़वा स्वाद जैसे लक्षण भी पाचन संबंधी समस्या का ही परिणाम है।

इसलिए, जब भी आपको खाने के बाद सीने में दर्द और चक्कर आने का अनुभव हो, तो घबराएं नहीं, लेकिन सतर्कता जरूर बरतें। अपने लक्षणों पर ध्यान दें और यदि वे गंभीर लगते हैं या हार्ट के दर्द के लक्षणों की तरफ इशारा करते हैं तो डॉक्टर को अवश्य दिखाएं।

क्या बार-बार बाल नोचना OCD से जुड़ा है? जानिए Trichotillomania का संबंध?

आपने कभी न कभी यह जरूर देखा होगा कि कोई व्यक्ति बिना वजह अपने सिर के बाल को बार-बार को खींच या नोच रहा है, या पलकों के बाल तोड़ने का प्रयास कर रहा है या सिर में हाथ घुमा रहा है, और फिर खुद ही परेशान हुआ जा रहा है।

आमतौर पर हम इसे आदत मानकर नजरअंदाज कर देते हैं लेकिन कभी-कभी यह मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर समस्या या स्थिति भी हो सकती है, जिसे Trichotillomania कहते हैं।

हालांकि कई लोग इसे OCD यानी Obsessive Compulsive Disorder से जोड़ते हैं, क्योंकि इसमें भी व्यक्ति बार-बार कुछ ऐसा करता है जिसे रोकना और समझाना मुश्किल होता है। ऐसे में इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि क्या बार-बार बोल नोचना OCD से जुड़ा हुआ है? इसका Trichotillomania से संबंध क्या है?

यह बीमारी क्या है, क्यों होती है, क्या इसके लक्षण हैं और इसका इलाज क्या है।

Trichotillomania क्या है?

Trichotillomania एक ऐसी मानसिक समस्या है जिसमें इससे प्रभावित व्यक्ति बार-बार अपने शरीर के बालों को खींचता है। इसमें व्यक्ति सबसे ज्यादा अपने सिर, अपनी भौंहें, पलकें और हाथ पैर के बालों को नोचने का प्रयास करता है और वह इस प्रक्रिया को दोहराता है। ऐसा करने पर उसे राहत मिलती है।

इस समस्या से प्रभावित व्यक्ति स्वयं भी इस प्रक्रिया को रोकना चाहते हैं, लेकिन रोक नहीं पाते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि व्यक्ति के द्वारा शरीर के बाल खींचने पर वह जगह खाली हो जाती है। जिससे वह व्यक्ति और भी परेशान रहता है।

क्या यह OCD जैसी बीमारी है?

देखिए, OCD और Trichotillomania दोनों में समानता जरूर होती है, लेकिन अंतर भी है। इन दोनों स्थितियों में व्यक्ति बार-बार कुछ ऐसा करता है जिसे करने की उसे बेचैनी होती है और ऐसा करने के बाद उसे राहत मिलती है। लेकिन इसके बावजूद OCD और Trichotillomania में फर्क जरूर है।

सबसे पहला अंतर यह है कि OCD में इंसान डर या सोच से घबरा कर काम करता है, जैसे बार-बार हाथ धोना या फिर कोई और काम करना। ओसीडी में व्यक्ति सफाई से जुड़ा हुआ काम ज्यादा करता है।

Trichotillomania में व्यक्ति बिना किसी डर के बाल खींचता है, और उसे उस समय थोड़ी राहत या शांति महसूस होती है। इसमें व्यक्ति खुद को राहत पहुंचाने के लिए बालों को खींचता है, या उस प्रक्रिया को बार-बार दोहराता है।

इसलिए Trichotillomania को अब एक अलग तरह की समस्या माना जाता है। इसे Body-Focused Repetitive Behavior (BFRB) में गिना जाता है। जिसका अर्थ है शरीर से जुड़ी दोहराई जाने वाली आदत।

Trichotillomania के लक्षण क्या हैं?

1.बार-बार अपने सिर, भौंह, पलकों या शरीर के बाल नोचना

2. बेचैनी होना और बाल नोचने के बाद राहत मिलना

3. बाल खींचने के कारण बाल कम हो जाना या गंजापन

4. लोगों से छिपकर अपने बालों को खींचना

5. खुद को तकलीफ देकर भी आदत को नहीं छोड़ना

Trichotillomania के कारण क्या है?

Trichotillomania के कारणों के बारे में सीधी जानकारी तो मिलना मुश्किल है, लेकिन इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं।

1. तनाव या चिंता: जब व्यक्ति किसी तनाव या चिंता के कारण बहुत ज्यादा सोचता है तो सोचने के दौरान उसे इस तरह की आदत लगना संभव है।

2. दिमाग में केमिकल का असंतुलन: जब व्यक्ति के दिमाग में केमिकल का असंतुलन हो जाता है तो ऐसी समस्याएं देखने को मिलती है। जैसे सेरोटोनिन या डोपामिन की गड़बड़ी।

3. आनुवंशिक: ऐसा भी देखने में आया है कि परिवार में अगर किसी को इस तरह की आदत है तो उनके बच्चों को भी यह समस्या हो सकती है।

4. अगर किसी को बचपन में इस तरह की आदत रही हो तो वह बाद में जाकर बीमारी में बदल सकती है।

Trichotillomania का इलाज क्या है?

1. थैरेपी : यह सबसे कारगर इलाज माना गया है। इसमें खासकर Habit Reversal Therapy को अपनाते हैं, जिसमें इंसान को अपनी आदत को पहचानने और उसे रोकने के आसान तरीके सिखाए जाते हैं।

2. दवाइयां: गंभीर मामलों की स्थिति में डॉक्टर के द्वारा दवाइयां दी जाती हैं, जो मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं।

3. योग एवं ध्यान: मन को शांत रखने और बेचैनी को कम करने के लिए योग एवं ध्यान भी बहुत महत्वपूर्ण है। कई बार डॉक्टर के द्वारा इसकी भी सलाह दी जाती है।

4. परिवार का साथ: अगर किसी व्यक्ति को इस तरह की परेशानी है तो उसे परिवार का साथ और दोस्तों के साथ रहना बहुत जरूरी होता है जिससे उसे मानसिक और भावनात्मक सपोर्ट मिलता है।

डॉक्टर से कब मिलना चाहिए?

अब सबसे आखरी सवाल की Trichotillomania स्थिति में डॉक्टर से कब मिलना चाहिए। ऐसी स्थिति में डॉक्टर से तब मिलना चाहिए जब बाल खींचना आदत से ज़्यादा मजबूरी बन जाए, बाल झड़ने की वजह से शरीर में खाली जगह दिखने लगे,
अगर इस समस्या के साथ तनाव, नींद की कमी, या डिप्रेशन भी महसूस हो और जब से प्रभावित व्यक्ति खुद को चोट पहुंचाने लग जाए।

Trichotillomania कोई सामान्य आदत नहीं, बल्कि यह एक मानसिक बीमारी है जो किसी को भी हो सकती है। इसे नजरअंदाज नहीं करके, इसकी पहचान कर इलाज कराना जरूरी है। अगर आप या आपके आसपास कोई इस आदत से परेशान है, तो उसे भावनात्मक सपोर्ट दें। साथ ही, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लिए डॉ. चौधरी हॉस्पिटल, उदयपुर में विशेषज्ञ को अवश्य दिखाएं।

क्या भोजन के बाद पेट में भारीपन और दर्द सताता है? जानिए कारण और समाधान

आपने या आपके परिवार में किसी ने कभी न कभी यह समस्या जरूर महसूस की होगी कि खाने के बाद पेट में दर्द हो रहा है या पेट भारी हो गया है। दरअसल, खाना खाने के बाद पेट में भारीपन या दर्द की समस्या आजकल आम होती जा रही है। कुछ लोगों में खाना खाते ही सीने में जलन, गैस, या पेट फूलने की समस्या देखने को मिलती है, तो कुछ को दर्द भी होता है।

अक्सर हम इस समस्या को हल्के में ले लेते हैं, लेकिन यह हमारे पाचन तंत्र से जुड़ी बड़ी समस्या का संकेत भी हो सकता है। इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि खाना खाने के बाद पेट में भारीपन और दर्द क्यों होता है, इसके क्या लक्षण होते हैं और कैसे इसे घर पर ही आसान उपायों से ठीक किया जा सकता है।

पेट में भारीपन के कारण

1. अधिक मात्रा में खाना खाना– जब हम पेट की क्षमता से ज्यादा खाना खा लेते हैं, तो यह समस्या हो सकती है। हमारी क्षमता से अधिक भोजन करने पर पाचन तंत्र पर दबाव पड़ता है, जिससे हमें भारीपन महसूस होता है।

2. भारी, तला हुआ या मसालेदार भोजन करना – जब हम भारी, तला हुआ और बहुत ज्यादा स्पाइसी खाना खा लेते हैं, तो ऐसा खाना देर से पचता है और गैस बनाता है। जिससे भी यह समस्या हो सकती है।।

3. जल्दी-जल्दी खाना खाना – जब हम तेजी से खाते हैं तो ऐसे में खाने के साथ हवा भी पेट में जा सकती हैं, जिससे भी पेट फूला हुआ महसूस होता है।

4. कम पानी पीना – पानी सिर्फ प्यास नहीं बुझाता बल्कि भोजन पचाने के लिए भी शरीर को पानी की आवश्यकता होती है। ऐसे में पानी की कमी से पाचन धीमा हो जाता है। जिससे भी भारीपन हो सकता है।

5. तनाव और चिंता – हमारी मानसिक स्थिति का सीधा असर हमारे पाचन तंत्र पर पड़ता है। तनाव और चिंता की वजह से भी यह समस्या देखने को मिलती है।

6. कुछ विशेष बीमारियां – कुछ खास बीमारियां जैसे जैसे एसिडिटी, अल्सर, गैस्ट्राइटिस, या आईबीएस से भी यह समस्या देखने को मिलती है।

पेट में दर्द क्यों होता है?

पेट दर्द का मुख्य कारण भी पाचन से जुड़ी समस्याएं हैं। इनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

1. गैस या एसिडिटी

2. कब्ज या दस्त

3. अपच

4. बैक्टिरियल इन्फेक्शन

5. फूड एलर्जी

6. पेचिश या फूड पॉइजनिंग

7. पथरी या अन्य पेट के रोग

यदि पेट दर्द लगातार बना रहे या तेज हो जाए, तो यह किसी गंभीर समस्या जैसे अल्सर, अपेंडिक्स या पैंक्रियास से जुड़ा संकेत भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में डॉक्टर को अवश्य दिखाएं।

पेट में भारीपन के लक्षण क्या है?

पेट में भारीपन के लक्षण निम्नलिखित होते हैं।

1. कम खाने पर भी पेट में भरेपन का अहसास

2. गैस बनना और बार-बार डकारें आना

3. भूख कम लगना या खाने का मन नहीं होना

4. थकान और सुस्ती महसूस होना

5. पेट में खिंचाव या जलन होना

पेट दर्द के लक्षण क्या हैं?

पेट दर्द के लक्षण निम्नलिखित होते हैं।

1. पेट में मरोड़ जैसा दर्द

2. दर्द बीच-बीच में उठने वाला या लगातार बना रहना

3. दर्द के साथ उल्टी या मिचली की समस्या

4. मल त्याग में समस्या होना

5. बुखार या ठंड लगना (इन्फेक्शन होने पर)

पेट में भारीपन और दर्द ठीक करने के सामान्य उपाय

1. भोजन के बाद टहलें – खाना खाने के बाद तुरंत बैठे या लेटे नहीं। खाने के बाद 10-15 मिनट टहलना पाचन में मदद करता है।

2. गुनगुना पानी पिएं – हर रोज सुबह हल्का गर्म पानी पीने से गैस और भारीपन में राहत मिलती है।

3. हींग और अजवाइन का सेवन करें – प्रतिदिन थोड़ी सी हींग और अजवाइन गर्म पानी के साथ लेने से पेट की गैस और दर्द में आराम मिलता है।

4. पेट पर गर्म पानी की बोतल रखें – अगर पेट दर्द और भारीपन की अधिक समस्या हो तो पेट पर गर्म पानी की बोतल रखें। इससे मांसपेशियाँ ढीली होती हैं और दर्द कम होता है।

5. छाछ और काला नमक – छाछ औषधीय गुणों से भरपूर होती है, जो पाचन को सुधारती है और काला नमक गैस कम करता है।

6. तनाव को कम करें – प्रतिदिन 15 मिनट योग, प्राणायाम या ध्यान से मानसिक शांति मिलती है, जो पाचन तंत्र को स्वस्थ बनाने में सहायक है।

7. फाइबर युक्त आहार – कब्ज और अपच से बचने के लिए फल, सब्जियाँ और फाइबर युक्त अनाज का सेवन करना चाहिए।

8. तला और मसालेदार नहीं खाए – तला हुआ और मासलदार खाने से पेट दर्द की समस्या बढ़ती है। ऐसे में इस तरह का खाना खाने से बचाना चाहिए।

 

खाना खाने के बाद पेट में भारीपन और दर्द एक आम समस्या जरूर है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। सामान्य जीवनशैली, संतुलित आहार और अच्छी दिनचर्या अपनाकर इस समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है। पेट दर्द से जुडी किसी भी समस्या के लिए डॉ. चौधरी हॉस्पिटल, उदयपुर में विशेषज्ञ डॉक्टर को अवश्य दिखाएं।

Are You at Risk for Bone Spurs (Osteophytes)? Key Factors to Watch

Bone spurs, medically known as osteophytes, might sound worrying, but they are more common than you think. These pointed projections formed along the edges of bones, often occur in joints where two bones meet. The name sounds like a worrisome medical condition, but they can even be asymptomatic for many people. While for the others, they can also be uncomfortable, painful, and limit mobility, especially as they grow and start affecting surrounding tissues.

Wondering whether you could be at risk for bone spurs? Let’s understand their symptoms, causes, and what you can do to manage or treat them effectively.

Symptoms of Bone Spurs

While many bone spurs do not show any symptoms, when they do, they can lead to extreme discomfort. Here’s what to watch out for:

  1. Pain and Stiffness: The most common symptom is pain, especially when the bone spur presses on surrounding nerves or other soft tissues. This can occur in the spine, shoulders, hips, knees, and fingers.
  2. Swelling and Inflammation: Swelling and inflammation can develop when bone spurs irritate surrounding tissues, leading to further discomfort.
  3. Numbness or Tingling: When a bone spur compresses a nerve, it causes numbness, tingling, or weakness in the affected area.
  4. Limited Ability to Move: Bone spurs can limit your ability to move a joint fully, making everyday activities more challenging.
  5. Visible Lumps: In some cases, bone spurs may create a visible or palpable lump beneath the skin, particularly in the finger joints.

Causes of Bone Spurs

Understanding what leads to the formation of bone spurs can help you manage your risk. The primary causes include:

  1. Osteoarthritis: The most common cause, osteoarthritis, is a degenerative joint disease where cartilage breaks down over time, prompting the body to try to repair the damage by forming new bone.
  2. Aging: As you age, the wear and tear of your joints increase, making the development of bone spurs more likely. Most people over the age of 60 have some degree of osteophyte.
  3. Injury or Trauma: Injuries, such as those from sports or accidents, can accelerate the wear on cartilage, leading to the formation of bone spurs.
  4. Poor Posture: Chronic poor posture can put uneven stress on your spine and joints, contributing to the development of bone spurs.
  5. Genetics: There may be a hereditary component, where if your parents had bone spurs, you might be more prone to developing them as well.

Treatment Options for Bone Spurs

Treatment for bone spurs depends on the severity of your symptoms and the impact on your quality of life. Here are the most common treatment approaches:

  1. Physical Therapy: Strengthening the muscles around the affected joint can help alleviate symptoms and improve your range of motion.
  2. Pain Medications: Over-the-counter pain relievers like ibuprofen or acetaminophen can help manage pain and inflammation. In more severe cases, your doctor might recommend corticosteroid injections to reduce inflammation. But it is advisable to take any medication only after consulting your doctor.
  3. Surgery: If a bone spur is causing significant pain, nerve compression, or severe mobility issues, surgery may be necessary to remove the spur and relieve symptoms. Arthroscopic surgery is a less invasive option with quicker recovery times. Consult with your doctor and he will guide you through if he thinks you need a surgery.
  4. Orthotic Devices: In some cases, wearing supportive devices like braces or custom orthotics can help reduce pain and improve joint function.

Pain Management Measures to Prevent or Alleviate Bone Spurs

While you can’t always prevent bone spurs, especially those related to aging or genetics, there are steps you can take to reduce your risk or manage symptoms effectively:

  1. Maintain a Healthy Weight: Being overweight puts additional stress on your joints, particularly your knees, hips, and spine, increasing the risk of bone spur.
  2. Exercise Regularly: Engaging in regular physical activity helps keep your joints flexible and strengthens the muscles that support them. Focus on low-impact exercises like swimming, cycling, or walking to reduce joint stress.
  3. Practice Good Posture: Whether you’re sitting, standing, or lifting, maintaining proper posture can prevent unnecessary strain on your spine and joints, reducing the likelihood of bone spur development.
  4. Wear Supportive Footwear: Shoes with good arch support can help reduce stress on your feet, knees, and hips, particularly if you spend a lot of time on your feet.
  5. Listen to Your Body: If you experience joint pain or stiffness that doesn’t improve with rest, it’s essential to see a healthcare professional. Early intervention can prevent further damage and improve your quality of life.

Conclusion

Bone spurs are a common condition, especially as we age. While they don’t always cause symptoms, they can lead to discomfort and limit your ability to move freely. By understanding the symptoms, causes, and treatment options, you can take proactive steps to manage or prevent bone spurs. If you suspect you have bone spurs or are at risk, consult with a healthcare professional for an accurate diagnosis and personalized treatment plan.

दुनियाभर में आखिर क्यों ज्यादातर मौतें होती हैं हार्ट अटैक से? जानें इसके कारण ,लक्षण और बचाव के उपाय

देश में रोजाना अगर किसी बीमारी से सबसे ज्यादा मौत होने के मामले सामने आ रहे हैं, वो है हार्ट अटैक। इन दिनों कई ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें किसी भी उम्र या तबके का व्यक्ति अचानक से प्राण त्याग देता है। कोई डांस करते-करते अचनाक से गिर जाता है तो कोई स्पीच देते-देते ही मौत के मुंह में चला जाता है और कोई जिम में एक्सरसाइज करते हुए। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 63% लोग लाइफ स्टाइल में खराबी की वजह से मारे जा रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कुछ लोग अलर्ट नहीं होते हैं और अपनी जान गंवा बैठते हैं. अब सवाल ये उठता है कि आख़िरकार हार्ट अटैक से हर उम्र के लोगों की मौत कैसे हो रही है? आइए इस बारे में जानते हैं।

हार्ट अटैक क्या होता है?

हृदय की मांसपेशियों को ऑक्सीजन के साथ-साथ खून की भी जरूरत होती है। इस जरूरत को पूरा करती है कोरोनरी धमनियां। लेकिन जब इन कोरोनरी धमनियों में प्लाक जमने लग जाता है तो नसे संकीर्ण होने लगती हैं और तब हृदय को खून की आपूर्ति अवरुद्ध हो जाती है। प्लाक जमने का कारण फैट, कैल्शियम, प्रोटीन और इंफ्लेमेशन कोशिकाओं के द्वारा होता है। प्लाक कठोर होने पर बाहरी आवरण टूट जाता है और इससे नस के चारों तरफ खून के थक्के जमा होने लगते हैं। ऐसे में यदि एक भी थक्का खून की नाली में आ जाता है तो इससे दिल को खून की आपूर्ति होने में बाधा होने लगती है। इस वजह से हृदय की मांसपेशियों को ठीक से ऑक्सीजन नहीं मिल पाता और हालत ख़राब होने लगती है।

हार्ट अटैक आने का क्या कारण है?

इन दिनों लोगों की व्यस्तता भरी दिनचर्या, ख़राब जीवनशैली, अनियमित खानपान, जंक फ़ूड का सेवन, शराब का सेवन और धूम्रपान करने से खासकर युवाओं में हार्ट अटैक का खतरा बढ़ रहा है। साथ ही डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, मोटापा, तनाव जैसी बीमारियों के कारण भी ये समस्या होने लगी है।

युवाओं में ही क्यों बढ़ रही हार्ट अटैक की समस्या?

डॉक्टर्स का कहना है कि युवाओं में हार्ट अटैक आने का सबसे बड़ा कारण तनाव और ख़राब लाइफस्टाइल है। हृदय से जुड़ी बीमारी ख़राब लाइफस्टाइल के कारण होती हैं। बदलती हुई लाइफस्टाइल ने सबसे ज्यादा दिल को नुकसान पहुँचाया है। इसके अलावा इन दिनों युवा वर्ग भी ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कोलेस्ट्रॉल का शिकार है, इस वजह से भी उन्हें दिल से संबंधित बीमारी होती है। कुछ मामलों में ये बीमारी हेरिडेटरी यानी फैमिली हिस्ट्री के कारण भी होती है। हमारे खानपान का सीधा असर हार्ट पर पड़ता है. यदि आप रोजाना डाइट में ज्यादा फैट ले रहे हैं तो हार्ट में कोलेस्ट्रॉल और हाई ट्राइग्लिसराइड्स धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। इससे हार्ट की आर्टरी में ब्लॉकेज होता है और हार्ट अटैक आ जाता है।

शुरुआती 1 घंटा होता है अहम्

हार्ट में दिक्कत तो काफी पहले से ही शुरू हो जाती है लेकिन कोई इस पर ध्यान नहीं देता है। हमें लगता है कि हार्ट अटैक अचानाक आया है, लेकिन ये पुरानी समस्या होती है. हार्ट अटैक आने के बाद भी लोग अस्पताल ले जाने में देरी करते हैं, जिसके कारण मरीज मौत के मुंह में चला जाता है। लोग कार्डियक अरेस्ट या हार्ट अटैक को गंभीरता से नहीं लेते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक, महज 10 फीसदी लोग ही हार्ट अटैक आने के एक घंटे के अंदर अस्पताल पहुँचते हैं। हार्ट अटैक के 55 प्रतिशत मरीजों की मौत समय पर अस्पताल न पहुँचने के कारण होती है। मरीज को जितना जल्दी इलाज मिलेगा वह उतना ही जल्दी ठीक हो सकेगा।

यदि परिवार में कोई दिल का मरीज है तो क्या करें?

हार्ट अटैक आने का कारण अनुवांशिक यानी हेरिडेटरी भी हो सकता है। यदि आपके परिवार में किसी व्यक्ति को हार्ट से संबंधित कोई समस्या है तो आप भी सचेत हो जाएँ।

युवा ही क्यों हो रहे हार्ट अटैक का शिकार?

एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 4 करोड़ लोग ऐसे हैं जो ख़राब लाइफस्टाइल के कारण मौत के मुंह में धकेले गए हैं। इन लोगों की उम्र 30 साल से लेकर 50 साल तक थी। इनमें से ज्यादातर लोग डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर, दिल की बीमारियां, स्ट्रोक, कैंसर, सांस से जुड़ी बीमारी और खासतौर पर ख़राब लाइफस्टाइल का शिकार थे। ख़राब लाइफस्टाइल यानी गलत खानपान, व्यायाम या कसरत ना करना, तनाव, नींद की कमी, प्रदूषित पर्यावरण आदि। सेहत पर ध्यान ना देने और शरीर में हो रही तकलीफ को नजरअंदाज करने के कारण उन्हें अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा।

हार्ट अटैक आने के लक्षण क्या हैं?

आमतौर पर हार्ट अटैक आने पर सीने में दर्द, पसीना आना आम लक्षण माने जाते हैं। लेकिन कुछ आम लक्षण हार्ट अटैक आने से पहले ही लोगों के अंदर दिखने शुरू हो जाते हैं। इन्हें नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। ये लक्षण हैं- ब्लड प्रेशर बढ़ना, बार-बार पेशाब आना, थॉयराड की समस्या आना, सीने में भारीपन महसूस होना, धड़कन बढ़ना, किसी एक बांह या दोनों में दर्द होना, सांस फूलना, पैरों में सूजन होना, सीने में खिंचाव या जलन महसूस होना आदि। इन लक्षणों के महसूस होते ही आप बिना देरी किये तुरंत कार्डियोलॉजिस्ट से संपर्क करें।

हार्ट अटैक आने पर क्या करें?

यदि आपको हार्ट अटैक जैसे लक्षण दिख रहे हैं तो आप एक जगह शांति से बैठ जाएं।
गाड़ी चला रहे हो तो रोक दें और तुरंत आसपास वालों को बुलाएं।
यदि हार्ट अटैक आने वाला व्यक्ति होश में है और वो खुद ही सांस ले रहा है तो उसे कार्डियोपल्मोनरी रिसस्टिेशन या फिर सीपीआर देने की जरूरत नहीं है। उसे तुरंत अस्पताल ले जाएं।
यदि मरीज बेहोश हो गया है तो उसे तुरंत सीपीआर देने की जरूरत है।

हार्ट अटैक और हार्ट की बीमारियों से बचने के लिए क्या करें?

  • आप खुद को एक्टिव रखें।
  • खानपान में सुधार करें। जंक फ़ूड के सेवन से बचें।
  • अपने दिन की शुरुआत व्यायाम या एक्सरसाइज से करें।
  • अधिक तनाव या टेंशन ना लें।
  • साफ-सफाई का ख्याल रखिए।
  • विटामिन से भरपूर सादा घरेलू भोजन खाएं।
  • डायबिटीज के मरीज, हाइपरटेंशन से पीड़ित लोग नियमित रूप से हार्ट टेस्ट करवाते रहें।
  • धूम्रपान और शराब के अधिक सेवन से बचें।
  • ब्लड प्रेशर, शुगर और कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखें।
  • मोटापे को कम करें।
  • डॉक्टर से सालाना स्वास्थ्य जांच कराएं।

अपने डॉक्टर की सलाह लेकर समय-समय पर ईसीजी, ब्लड टेस्ट, इकोकार्डियोग्राफी, एंजियोग्राम या फिर कार्डिएक सीटी या एमआरआई करवाते रहें।
हार्ट अटैक के खतरे को कम करने के लिए डॉक्टर आपको एस्पिरिन, बीटा ब्लॉकर, स्टैटिन, कैल्शियम चैनल ब्लॉकर या कुछ पैन किलर जैसी दवाइयां लिख सकते हैं। डॉक्टर की सलाह लेकर ही इन दवाइयों का सेवन करें।

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